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हमारी प्रार्थना शुभ का सृजन करती है (om)


जीवन में प्रार्थना एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। इसकी शक्ति में हर धर्म व संस्कृतियों का विश्वास है। प्रार्थना सभी धर्मों में होती हैं। हिंदू गीता पढ़ता है, मुसलमान कुरान। बौद्ध धम्मपद पढ़ता है, तो जैन आगम। सिख गुरुग्रंथ साहिब पढ़ता है, तो क्रिश्चियन बाइबिल। नाम, रूप, शब्द, सिद्धांत, शास्त्र और संस्कृति की भिन्नताओं के बावजूद साध्य सबका एक है- भीतर का बदलाव, स्व की पहचान।

इस्लाम में एक कहावत है- सौ दवा, एक हवा, सौ हवा, एक दुआ। जो काम दुआ, यानी प्रार्थना से हो सकता है, वह अन्य किसी शक्ति से संभव नहीं है। कहते हैं, एक बार हुमायूं गंभीर रूप से बीमार पड़ा। बचने की आशा क्षीण होने लगी। तब बाबर ने इबादत की, हे अल्लाह! मैं अपनी जान तेरे चरणों में भेंट कर रहा हूं। मुझे उठा ले, पर इसके बदले मेरे बेटे हुमायूं की जान बख्श दे। कहते हैं कि इस प्रार्थना के बाद हुमायूं धीरे-धीरे स्वस्थ हो गया और बाबर का स्वास्थ्य एकदम बिगड़ गया। आखिर उसका देहांत हो गया। इस प्रकार की अनेक घटनाएं सुनी जाती हैं, जिनमें प्रार्थना का प्रभाव झलकता है।

ब्रिटेन और अमेरिका में तो आजकल चिकित्सा जगत में प्रार्थना का बड़ा प्रचलन है। वहां के आम आदमी को ही नहीं, बल्कि बड़े-बड़े डॉक्टरों को और वैज्ञानिकों को भी यह विश्वास है कि जिन रोगों की चिकित्सा में आज का मेडिकल साइंस असफल है, ऐसे असाध्य रोग भी प्रार्थना से ठीक हो जाते हैं। वहां पर ऐसे क्लब हैं, जिनके सदस्य प्रतिदिन मिल कर अपने तथा दूसरों के लिए आरोग्य की प्रार्थना करते हैं।

भारतीय प्रार्थना पद्धति और पाश्चात्य पद्धति में अंतर यह है कि भारत में प्रार्थना का महत्व समर्पण, निष्ठा, आस्था और निष्कामता में है। हम ईश्वर से केवल आरोग्य ही नहीं मांगते, परंतु अपने विकारों के शमन और कर्मों से आत्मा की मुक्ति की भी प्रार्थना करते हैं। यहां निष्काम प्रार्थना का अधिक महत्व है, पश्चिम में सकाम प्रार्थना का प्रचलन है। वहां प्रार्थना को भी एक चिकित्सा विधि मानकर चलते हैं।

प्रार्थना भावनात्मक चेतना का अहसास है। इसे हम धर्म, जाति, संप्रदाय, देश, काल, भाषा की सीमाओं में नहीं बांध सकते। यह हर उस व्यक्ति का स्वभाव है, जो स्वयं द्वारा स्वयं को पाने का पुरुषार्थ करता है। प्रार्थना है तो व्यक्तित्व है, आदर्श है, उद्देश्य है, विचार है, कर्म है, पहचान है, अन्यथा संस्कारों की भीड़ में भटकता एक निरुद्देश्य इंसानी चेहरा है जो जीता है मगर जीने का अर्थ नहीं जानता।

जो प्रार्थना संकट के समय की जाती है, विपत्ति के समय उसमें जो तीव्रता का वेग प्रकट होता है, वह सामान्य स्थिति में नहीं दीखता। वहां प्रार्थना एक विशेष समय में सहायता की पुकार बन जाती है। यद्यपि भावना भी इसी प्रकार का परिणाम लाने में समर्थ है। भावना के द्वारा भी हम अपनी शक्तियों का उद्दीपन कर लेते हैं, परंतु प्रार्थना में कुछ विलक्षण ढंग से वह तीव्रता के साथ प्रकट होता है, अत: यहां प्रार्थना भावना से बिल्कुल स्वतंत्र दिशा पकड़ लेती है।

जब हम सामान्य रूप में विश्व मंगल के लिए, दुष्टों की दुर्बुद्धि में सुधार के लिए अपने अंत:करण से प्रार्थना करते हैं, तो यह मत समझिए कि वह केवल मुख से उच्चारण करने का विधि विधान मात्र है। उसमें भी वही चमत्कारी प्रभाव उत्पन्न होता है और विघ्न बाधाएं शांत होती हैं। इसलिए प्रार्थना के दो रूप हो जाते हैं -एक व्यक्तिगत, दूसरा सामूहिक।

जब व्यक्ति के जीवन पर संकट आता है, तब व्यक्ति स्वयं उसके निवारण के लिए प्रार्थना की भाषा में अपनी हृदय तरंगों को उत्सर्जित करता है, जब कभी समूह पर या संघ पर संकट आता है, तब सामूहिक प्रार्थनाएं की जाती हैं। उन सामूहिक प्रार्थनाओं से भी वातावरण शुद्ध होता है, शुभ और पवित्र वातावरण निर्मित होता है।

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