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भगवान की प्रसन्नता कर्म पर टिकी हुई है


दुनिया में आस्तिकता को लेकर कई दर्शन प्रचलित हैं। आस्तिकता का क्या अर्थ होता है? आस्तिकता माने भगवान पर विश्वास। भगवान का भजन नहीं, विश्वास। विश्वास के साथ भजन हो तो? तो मुबारक! लेकिन अगर बिना विश्वास के साथ भजन हो, तो उसका क्या मूल्य रह जाता है? विश्वास क्या होता है और भजन क्या होता है?

दोनों में जमीन-आसमान का फर्क है। जमीन-आसमान का फर्क ऐसे आदमी में होना संभव है जो भजन तो बहुत करता हो, पर भगवान पर विश्वास बिल्कुल न हो। और ऐसे आदमी में भी होना संभव है जो भगवान का भजन न करता हो, लेकिन भगवान का विश्वासी हो।
विश्वास और भजन दो बातें हैं। भजन में विश्वास को मिला दें तो फिर क्या कहने- सोने और सुगंध का मेल है, लेकिन वास्तव में ये दोनों चीजें अलग हैं।

पर आज समस्या यह है कि आस्तिकता खत्म हो गई है। कर्मफल को लोग भूल गए। कर्मफल की सचाई इतनी वास्तविक है कि इसको हटाया नहीं जा सकता। आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों, आपके कर्मों की सचाई आपके सामने आकर रहेगी। भगवान की प्रसन्नता एक बात पर टिकी हुई है कि आपका कर्म क्या है? कैसा है? भजन पर नहीं, कर्म पर भगवान की प्रसन्नता टिकी हुई है। अगर आप यह सब समझ लें, तो आस्तिकता का प्राण आपके पास आ गया। न्यायकारी भगवान सब जगह उपस्थित है, इसलिए आप छिप कर के भी कोई काम नहीं कर सकते। इंसान से आप छिप सकते हैं, भगवान से नहीं।

और जो लोग अच्छे काम करते, छिप कर किसी का अहित नहीं करते, उनके लिए भगवान भक्त वत्सल हैं। और बुरे काम करने वालों के लिए वे रुद्र हैं। रुद्र कैसे होते हैं? जो हंटर मारते हैं और खाल उखाड़ डालते हैं। आप पूछेंगे कि ये भक्त वत्सल हैं कि जल्लाद? आपने देखा नहीं है उनका यह रूप। श्मशान घाट में जाइए, और देख आइए कि भगवान भक्त वत्सल हैं कि जल्लाद हैं? तो यह क्या है? यह कुछ भी नहीं है। आपके जैसे कर्म, कर्म के हिसाब से भक्त वत्सल भी हैं और कर्म के हिसाब से वे जल्लाद भी हैं। आपके कर्म जो कुछ भी हैं, उन्हीं के हिसाब से आपको फल मिलेगा।
भगवान सर्वव्यापी हैं, न्यायकारी हंै, भक्त वत्सल हैं और रुद्र भी हैं। इन सब रूपों को मिला लें, तो आपकी आस्तिकता सर्वांग पूर्ण हो जाती है। अगर आपको आस्तिक रहना होगा तो, और नहीं रहना होगा, तो। आप खुद फैसला करेंगे कि आस्तिकता का स्वरूप यह है और नास्तिकता का स्वरूप यह है। नास्तिक क्या है? नास्तिक माने आस्थाओं और कर्म व्यवस्था से इनकार करने वाला। जो आदमी यह कहता है कि गंगा जी में नहाने से सारे पाप दूर हो जाते हैं, उसका नाम है नास्तिक, क्योंकि प्रकारांतर से वह यह कहता है कि हमको पापों का फल नहीं भुगतना पड़ेगा। पर जो सनातन मान्यताएं थीं, शाश्वत मान्यताएं थीं, जो अध्यात्म का तत्व ज्ञान था, वह इससे इसीलिए इनकार करता है क्योंकि कर्मफल से आप बच नहीं सकते। और ये नास्तिक कहता है कि कर्मफल से हम बच सकते हैं, गंगा जी में नहाने से पाप दूर हो सकते हैं।

गंगा में नहाने से पाप करने की वृत्ति दूर हो जाए , यह मैं समझ सकता हूं , लेकिन पापों के दंड दूर हो जाएंगे , तो फिर आदमी पाप करता ही चला जाएगा। इसीलिए कर्मफल की व्यवस्था गायत्री मंत्र मंे भी की गई। इसे आप स्वयं समझना और हर आदमी को समझना। प्राचीन काल का यह तत्व ज्ञान समझाता है कि भगवान की प्रसन्नता कर्मफल पर टिकी हुई है। भगवान की नाराजगी कर्मफल पर टिकी हुई है। भगवान का प्यार कर्मफल पर टिका हुआ है , पूजा पर नहीं। पूजा का उद्देश्य यही है - कर्मफल के बारे में मनुष्य की आस्थाओं को परिपक्व करना और उसके भीतर वह विश्वास पैदा करना जिससे कि भगवान के बारे में उसका दिमाग साफ हो जाए। इसी का नाम है आस्तिकता।

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