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अकारण नहीं है स्वर्ग और नरक की कल्पना

मनुष्य की कल्पनाओं में ईश्वर और स्वर्ग-नरक की कल्पना सबसे रोचक और महत्वपूर्ण ह
ै। प्राय: सभी धर्मों में स्वर्ग की कल्पना कमोबेश एक ख़ूबसूरत उद्यान के रूप में मिलती है, जहां ऐशोआराम की सभी चीजें मौजूद हैं। इस स्वर्गोद्यान में कलकल बहते झरने होते हैं। इन झरनों और नहरों के किनारे बनी क्यारियों में रंगबिरंगे मनमोहक फूल महकते हैं। यहां चारों ओर लगे हरेभरे पेड़ लगे होते हैं, जो सदैव स्वादिष्ट और रसीले फलों से लदे रहते हैं। इसी स्वर्गोद्यान में अप्सराएं होती हैं, परियां होती हैं, हूरें होती हैं तथा और भी न जाने क्या-क्या है, जिसे मनुष्य की कल्पना ने यहां संजोया है। यदि आप इस स्वर्ग को देखना चाहें या वहां स्थायी रूप से निवास करना चाहें तो वह भी संभव है, लेकिन मृत्यु के उपरांत हम जिस स्वर्ग की खोज में रहते हैं, वह स्वर्ग कहां है? क्या वह इस धरती पर ही स्थित है अथवा हमारी दृष्टि से परे अन्यत्र है? क्या स्वर्ग का संबंध मृत्यु से है? क्या इस भौतिक देह का अवसान ही मृत्यु है? मृत्यु वास्तव में क्या है? वह कौन सी मृत्यु है जिससे स्वर्ग की प्राप्ति संभव है? ईसा कहते हैं, मैं बार-बार यही कहूंगा कि जब तक मनुष्य दोबारा जन्म नहीं लेगा, वह ईश्वर का साम्राज्य नहीं देख पाएगा। अर्थात पुनर्जन्म ही स्वर्ग का द्वार है। स्वर्ग के लिए अनिवार्य है मृत्यु। लेकिन किसकी मृत्यु? इस भौतिक देह की मृत्यु या इस भौतिक देह के अंदर व्याप्त मन में समाए नकारात्मक घातक विचारों की मृत्यु? जहां तक भौतिक देह की मृत्यु अथवा देहावसान के बाद स्वर्ग या नरक की प्राप्ति की बात है, तो वह बेमानी है, क्योंकि इस शरीर के नष्ट हो जाने के बाद स्वर्ग या नरक की अनुभूति को बतलाने का कोई उपाय नहीं है। ईसा जब कहते हैं कि मनुष्य जब तक दोबारा जन्म नहीं लेगा, वह ईश्वर का साम्राज्य नहीं देख पाएगा- तो उनके कहने का तात्पर्य भौतिक देह के पुनर्जन्म से नहीं, बल्कि नकारात्मक घातक विचारों की मृत्यु के बाद मन में उत्पन्न होने वाले सात्विक भावों की सृष्टि से ही है। एक बार एक व्यक्ति ने एक प्रसिद्ध संत से स्वर्ग जाने का उपाय पूछा तो संत ने कहा, एक-एक कर सब अवगुणों से मुक्त हो जाओ। जिस दिन विकारों से मुक्त हो जाओगे, उसी दिन स्वर्ग की सृष्टि हो जाएगी और यहीं पर जीते जी हो जाएगी। जब तक हम नकारात्मक और घातक विचारों से भरे रहते हैं, हम अधिभौतिक, अधिदैविक तथा आध्यात्मिक- तीनों प्रकार की व्याधियों से पीड़ित रहते हैं। और यही जीते जी का नरक है। मन की उचित कंडीशनिंग अर्थात मन में व्याप्त नकारात्मक घातक विचारों से मुक्ति ही स्वर्ग का सोपान है। मन की मृत्यु अर्थात मन पर पूर्ण नियंत्रण द्वारा ही मन में सकारात्मक विचारों अथवा भावों की स्थापना संभव है। यही वास्तविक मृत्यु अथवा पुनर्जन्म है। मन में सकारात्मक भावों की सृष्टि ही स्वर्ग की सृष्टि है। वास्तव में स्वर्ग की प्राप्ति कब होती है? यह तभी संभव है जब हम इस जीवन में अच्छे-अच्छे कर्म करें। अच्छे कर्मों से क्या तात्पर्य है? वास्तव में कर्म की उत्पत्ति भावों या विचारों से होती है। जैसे हमारे भाव या विचार होंगे, वैसे ही कर्म भी होंगे। जिस प्रकार हम सुंदर पेड़-पौधे और फल-फूल उगाकर इस धरती पर स्वर्ग की रचना करने में सक्षम होते हैं, उसी प्रकार मन में सकारात्मक भावों की सृष्टि द्वारा हम जीते जी स्वर्ग की रचना ही तो करते हैं। विभिन्न धर्मों में ऐसे स्वर्ग की परिकल्पना इसीलिए है, क्योंकि उसका उद्देश्य अपने समुदाय के लोगों को सदाचार के लिए प्रेरित करना होता है। स्वर्ग के सुख की आशा उन्हें लुभा कर अच्छे मार्ग पर ले जाती है। लेकिन वास्तविक स्वर्ग तो हमारे मन में होता है। हम इस जीवन में अच्छे कर्म करें तथा अनुशासित रहें, जिससे न केवल व्यक्ति अपितु पूरा समाज लाभान्वित हो सके, इसीलिए एक काल्पनिक स्वर्ग की रचना की गई है। इस कल्पना में ही मनुष्य के जीवन के विकास का वास्तविक सूत्र निहित है।

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